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एक तीखी आँच ने....एक तीखी आँच ने....

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एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ, 
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुज़रता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा, 
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छूने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ !
...प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता 
आग के सम्पर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से।
एक चौथाई उमर 
यों खौलते बीती बिना अवकाश 
सुख कहाँ
यों भाप बन-बनकर चुका, 
रीता, 
भटकता-
छानता आकाश !
आह ! कैसा कठिन
...कैसा पोच मेरा भाग !
आग, चारों ओर मेरे
आग केवल भाग !
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई, 
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोयी-;
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकनें उठाती भाप !

अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे,
ज़िन्दगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे।

-दुष्यंत कुमार 


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